पवन साहू
कहते हैं कि विवाह संस्कार के बाद लड़की दूसरे कुल में जाती है और वहां अपनी जिम्मेदारियां निभाती हैं. हिंदू धर्म में शादी के समय 7 फेरों का विशेष महत्व माना गया है और मंत्रोच्चारण के साथ फेरे की रस्म होती है. इस दौरान लड़का वधु यानि लड़की की मांग में सिंदूर भरता है. सिंदूर दान के बाद पैरों में बिछिया पहनाई जाती है. मांग में सिंदूर और पैरों में बिछिया एक सुहागिन की पहचान होती है. महिलाओं का 16 श्रृंगार सिंदूर और बिछिया के बिना अधूरा माना जाता है. लेकिन क्या आप जानते हैं धमतरी जिले में एक ऐसे भी गांव है जहा की महिलाए मांग में ना तो सिंदूर भरता है और ना ही चेयर पर बैठते न ही महिलाए धान लुते ना ही खाट पर सोते और ना ही सोलह सिंगार आदि करना मनाही है। ये गाथा है धमतरी जिला के संदबाहारा गांव की।
भले ही आज जमाना चांद सितारे पर चला गया है लेकिन दुनिया मे कई ऐसी रूढिवादी परंपरा भी चली आ रही है। जिसे लोग खौफ के साये या मजबूरी के चलते मानते आ रहे है। कुछ ऐसा ही धमतरी में देखने को मिला है। यहां एक गांव ऐसा भी है जहां की औरत न तो श्रृंगार करती है और न ही खाट पर सोती है। यहां तक लकड़ी की बनी हुई कोई भी वस्तु पर बैठती है। और बारह माह यहां की औरते जमीन पर ही सोती है। हैरत की बात है कि इस गांव की महिलाएं अपनी मांग पर सिंदूर तक नही भरती। ये परंपरा गांव मे सदियो ंपहले एक देवी के प्रकोप के चलती बनाई गई थी। बताया जाता है कि अगर कोई भी गांव मे इसे तोड़ने की जुर्रत करते है तो गांव मे आफत आ जाती है। जिसके चलते ये परंपरा आज तक बदस्तूर जारी है। हम बात कर रहे है धमतरी जिले के नगरी ईलाके के सदबाहरा गांव की जहां ये अनोखी परंपरा चली आ रही है।
धमतरी जिला मुख्यालय से करीब 90 किलोमीटर की दूरी पर नगरी ईलाके मे सदबाहरा गांव है। यहां की एक अजब परंपरा की पूरे ईलाके मे चर्चा होती है। गांव मे तकरीबन 40 परिवार रहते हैं। और यह गांव अपनी एक परंपरा के चलते जाना जाता है यहां महिलाओं को खाट, पलंग, कुर्सी इत्यादि पर बैठने की इजाजत नही है। और इसी तरह महिलाओ को श्रृंगार करने की मनाही है। ऐसी मान्यता है कि अगर महिलाएं ऐसा करेंगी, तो ज्यादा समय तक जिंदा नहीं रहेंगी या फिर उसे कोई न कोई बीमारी जरूर हो जाएगी। दरअसल इसके पीछे एक कहानी छुपी है गांव के बडे बुर्जुर्ग बताते है कि गांव की देवी ऐसा करने से नाराज हो जाती है और गांव पर संकट आ जाता है। गांव में ही एक पहाड़ी है। जहां कारीपठ देवी रहती है। गांव प्रमुख की माने तो 1960 में एक बार गांव के लोगों ने इस परंपरा को तोड़ा था। जिसके बाद गांव की महिलाओं को कई तरह की बीमारियों ने घेर लिया। और मौते भी होने लगी। यहां तक जानवर मरने लगे और बच्चे बीमार होने लगे। सबको यही यही लगा कि ये देवी का प्रकोप है और परंपरा टूटने के कारण ऐसा हुआ। बस इसके बाद किसी ने भी इस परंपरा तोड़ने की हिम्माकत नही की। गांव मे कोई भी खुशी का पल हो दिवाली, दशहरा कोई भी तीज त्यौहार हो या फिर शादी ब्याह लेकिन महिलाए श्रृंगार नही करते। बिंदिया, पायल, लिपस्टिक तो दूर की बात है यहां की महिलाए मांग मे सिंदूर तक नहीं लगातीं। इसके पीछे सिर्फ एक डर है। जिसे गांव की कोई भी महिला आज तक तोड़ने की जुर्रत नही की है। यहां तक कि ये परंपरा इस गांव मे आने वाले दूसरे गांवो के लोगो पर भी लागू होता है। गांव में महिलाओं के बैठने के लिए ईंट-सीमेंट के ओट व टीले का निर्माण किया गया है। घर के अंदर भी महिलाएं फर्श पर ही सोती हैं किसी भी तरह के बेड व चारपाई पर इन्हें सोने व बैठने की मनाही है। गांव मे सभी लोग आज भी अंजाने खौफ के साये मे अपना जीवन बिता रहे है। हमेशा गांव वालो को डर बना रहता है कि परंपरा तोडने से गांव मे कोई भी अनहोनी हो सकती है। हालांकि कई समाजिक कार्यकर्ताओं ने यहां के लोगो को जाकर समझाया की ये सब अधंविश्वास की बाते है। लेकिन गांव वालो ने किसी की एक ना सुनी। और इस परंपरा को सदियो से निभाते आ रहे है।
क्लोजिंग एंकर। बहरहाल सदबाहरा गांव अपने इस अजब परंपरा के चलते पूरे ईलाके मे मशहूर है। और चर्चा का विशय भी बना हुआ है। अब ये देखने वाली बात होगी की आने वाली नयी पीढ़ी इस परंपरा को संजोये रखती है या फिर इसे एक अधंविश्वास मान कर तोड़ देती है।