जबलपुर। मध्य प्रदेश हाईकोर्ट ने स्पष्ट किया कि विवाह विच्छेद चाहने वाले मुस्लिम पुरुष पारिवारिक न्यायालय अधिनियम, 1984 के तहत पारिवारिक न्यायालयों का दरवाजा खटखटा सकते हैं, भले ही मुस्लिम विवाह विच्छेद अधिनियम, 1939 उन्हें स्पष्ट रूप से ऐसे अधिकार प्रदान नहीं करता है। यह निर्णय न्यायमूर्ति आनंद पाठक और न्यायमूर्ति हिरदेश की खंडपीठ ने दिया है।
क्या है पूरा मामला ?
अपीलकर्ता ने व्यभिचार और परित्याग के आरोपों का हवाला देते हुए न्यक्ति ने अपनी पत्नी से तलाक मांगा था। मुस्लिम पर्सनल लॉ के तहत 2007 में विवाहित इस जोड़े के चार बच्चे हैं। अपीलकर्ता ने दावा किया कि 2016 में उसकी पत्नी एक बच्चे और घर का कीमती सामान लेकर एक रिश्तेदार के साथ भाग गई। इस रिश्ते से 2017 में कथित तौर पर एक बच्चे का जन्म हुआ।
दतिया के पारिवारिक न्यायालय ने अपीलकर्ता की तलाक याचिका को खारिज कर दिया, जिसने फैसला सुनाया कि मुस्लिम विवाह विघटन अधिनियम, 1939 के तहत तलाक का आदेश प्राप्त करने के लिए मुस्लिम पुरुष के लिए कोई कानूनी ढांचा नहीं है। इसके कारण हाईकोर्ट के समक्ष वर्तमान अपील की गई।
हाईकोर्ट की टिप्पणियाँ और निर्णय
हाईकोर्ट ने पारिवारिक न्यायालय के निर्णय को पलट दिया, यह मानते हुए कि बाद में बनाए रखने के आधार पर तलाक की याचिका को खारिज करने में गलती हुई। इसने टिप्पणी की:
“यदि ट्रायल कोर्ट के तर्क को स्वीकार कर लिया जाता है, तो यह मुस्लिम पुरुष को न्याय या न्यायिक मंचों तक पहुँचने के अधिकार से वंचित करेगा, जो संवैधानिक भावना, नैतिकता और न्याय की दृष्टि के विरुद्ध है।”
न्यायालय ने इस बात पर जोर दिया कि पारिवारिक न्यायालय अधिनियम, 1984, स्पष्ट रूप से पारिवारिक न्यायालयों को जाति या धर्म की परवाह किए बिना विवाह विच्छेद से संबंधित मुकदमों या कार्यवाही की सुनवाई करने का अधिकार देता है। मध्य प्रदेश पारिवारिक न्यायालय नियम, 1988 का नियम 9 भी ऐसी कार्यवाही में शरीयत अधिनियम, 1937 और मुस्लिम विवाह विघटन अधिनियम, 1939 जैसे व्यक्तिगत कानूनों को शामिल करने का समर्थन करता है।
पीठ ने अपनी व्याख्या को पुष्ट करने के लिए सेट्टू बनाम रेशमा सुल्ताना (2021) में मद्रास हाईकोर्ट के फैसले और अकील अहमद बनाम फरजाना खातून (2022) में अपने स्वयं के फैसले सहित पिछले निर्णयों का संदर्भ दिया।