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छत्तीसगढ़: कोयला खनन का विरोध क्यों कर रहे हैं ये आदिवासी?-बीबीसी की ग्राउंड रिपोर्ट

सौजन्य बीबीसी हिंदी

कड़ाके की ठंड है. सर्द तेज़ हवा सिहरन पैदा कर रही है. हवा में मौजूद बारूद की गंध की वजह से सांस लेने में तकलीफ़ होती है.

रह रह कर तेज़ हवा के झोंके, हरिहरपुर गाँव के पेड़ों पर धूल की परत छोड़कर जा रहे हैं.

दोपहर के ठीक एक बजने वाले हैं. एक एक कर सिलसिलेवार धमाके इलाक़े को दहला रहे हैं.

ये धमाके हरिहरपुर से लगी एक बड़ी कोयले की खुली खदान में हो रहे हैं. कोयले की चट्टानों को तोड़ने के लिए डायनामाइट से विस्फोट किया जा रहा है. ये सिलसिला अब कई सालों से चल रहा है और हरिहरपुर के लोगों की ज़िन्दगी इसी के बीच चल रही है.

सरगुजा ज़िले की उदयपुर तहसील का ये गाँव हरिहरपुर, बस अपने दिन ही गिन रहा है. कुछ दिनों की ही बात है, ये गाँव भी कोयले की खुली खदान में तब्दील हो जाएगा. इसी बात की चिंता 65 साल की संपतिया बाई को भी सता रही है.

वो पिछले दो सालों से हर रोज़ हरिहरपुर में मौजूद धरना स्थल पर आतीं हैं और दिन भर धरने पर बैठी रहती हैं.

पीछे की खदान और उसके किनारे पर मौजूद मलबे के ढेर को दिखाते हुए वो कहती हैं, “खदान यहां तक आ गयी है. धीरे धीरे कर के आगे बढ़ रही है. ये खदान आपको दिख रही है ना ? ……ये गाँव हमारे रोकने से बचा हुआ है नहीं तो हमारा हरिहरपुर नहीं बचता… आंदोलन की वजह से ही अभी तक बचा हुआ है.”

कुछ देर तक वो खामोश खदान की तरफ़ देखती रहीं और फिर अचानक ज़ोर से बोल पड़ीं, “हम अपनी ज़मीन नहीं देंगे. यही बोल कर हम यहाँ बैठे हुए हैं दो सालों से….”

हसदेव अरण्य को ‘मध्य भारत के फेफड़ों’ के रूप मे जाना जाता है. विशालकाय पेड़ों का ये जंगल एक लाख 70 हज़ार हेक्टेयर में फैला हुआ है. यहाँ कुल 23 कोयले के ब्लाक हैं. लेकिन जहां अनुमति दी गयी है वहाँ कोयले के खनन के लिए पेड़ काटने का सिलसिला जारी है.

कोयले की ‘ओपन कास्ट’ या खुली खदानें, धीरे-धीरे इस जंगल को निगलती जा रहीं हैं. जंगलों के साथ साथ यहाँ के 54 गांवों पर भी ख़तरा मंडराता जा रहा है.

पिछले एक दशक से भी ज़्यादा समय से स्थानीय लोग और यहाँ के आदिवासी, कोयले के खनन का विरोध कर रहे हैं. उनका कहना है कि उनका अस्तित्व इस जंगल के अस्तित्व से ही जुड़ा हुआ है.

उदयपुर के मंडल अधिकारी यानी एसडीएम बीआर खांडे से हमारी मुलाक़ात तहसील कार्यालय में हुई. रात का समय था लेकिन वो फिर भी अपने काम में लगे हुए थे.

उन्होंने बताया कि खनन के इलाक़े में आने वाले 54 गांवों में से कई गांवों की भूमि का अधिग्रहण हो चुका है और कई गांवों की ज़मीन लेने की प्रक्रिया चल रही है.

उनका कहना था कि जिन गांवों में जन सुनवाई संपन्न हो गयी और ग्रामीणों की सहमति मिल गयी उन गाँवों का अधिग्रहण किया गया और तय किये गए मुआवज़े के पैकेज के तहत ही सबका पुनर्वास हुआ है.

2022 में तेज़ हुआ आंदोलन

यूं तो आंदोलन एक दशक से भी ज़्यादा समय से चल रहा है मगर इसने तूल तब पकड़ा जब पहली बार वर्ष 2022 में पेड़ों की कटाई का सिलसिला शुरू हुआ था.

फिर पिछले साल दिसंबर में एक बार फिर पेड़ काटे गए और आदिवासियों और ‘सिविल सोसाइटी’ का गुस्सा फूट पड़ा.

सरकार का कहना है कि पेड़ ‘परसा ईस्ट और कांता बसन (पीईकेबी) कोयला खदान परियोजना के लिए काटे गए हैं. ये कोयले के ब्लाक राजस्थान राज्य विद्युत उत्पादन निगम को आवंटित किये गए हैं.

एसडीएम बीआर खांडे कहते हैं, “सरकार के जो आदेश आये हैं, उस के तहत ही ‘लीगल’ कार्रवाई की गयी है. दिसंबर में जो पेड़ काटे गए हैं, उस ज़मीन का अधिग्रहण वर्ष 2018 में ही किया जा चुका था और इलाक़े के लोगों का पुनर्वास भी हुआ था.”

वो कहते हैं, “हमारी तरफ़ से वैसे कोई ‘एक्स्ट्रा’ कार्रवाई नहीं की गयी है…. जो लॉ एंड आर्डर की स्थिति थी उसी को हमें देखना पड़ा है…. और बाक़ी जिस विभाग का जो काम था, उस विभाग ने अपना काम किया है. जैसे पेड़ों के काटने का काम हो या राजस्व विभाग का काम.”

आंदोलनकारियों के निशाने पर अदानी समूह है जिसकी इकाई ‘अदानी इंटरप्राइजेज लिमिटेड’ इलाक़े में कोयले के खनन का काम कर रही है.

मगर, अदानी समूह की कंपनी के अधिकारियों ने बीबीसी से कहा कि उनकी “भूमिका सिर्फ़ राजस्‍थान राज्‍य विद्युत उत्‍पादन निगम लिमिटेड की ओर से नियुक्त किये गए ‘एमडीओ’ यानी ‘माईन डेवलपर एंड ऑपरेटर’ के रूप में ही सीमित है.

वो कहते हैं कि न तो वो ज़मीन अधिग्रहण कर रहे हैं, ना पेड़ काट रहे हैं और ना ही मुआवज़ा दे रहे हैं. क्योंकि ये राजस्थान सरकार और छत्तीसगढ़ सरकार के बीच का मामला है.

जो कुछ हो रहा है वो छत्तीसगढ़ की सरकार कर रही है. साथ ही खनन का काम भी राजस्‍थान राज्‍य विद्युत उत्‍पादन निगम लिमिटेड के अधिकारियों की देख रेख में ही हो रहा है.

छत्तीसगढ़ में ‘अदानी इंटरप्राइजेज लिमिटेड’ की बतौर ‘माईन डेवलपर एंड ऑपरेटर’ परियोजनाएं:-

  • परसा ईस्ट और कांता बसन (पीईकेबी) कोयला खदान परियोजना (2013 से शुरू)
  • गारे-पेल्मा – III कोयला ब्लाक (2019 से शुरू)

राजस्थान को कोयले की ज़रूरत

छत्तीसगढ़ के दौरे पर आये राजस्‍थान राज्‍य विद्युत उत्‍पादन निगम लिमिटेड के अध्यक्ष आरके शर्मा ने पत्रकारों से बातचीत करते हुए कहा कि हसदेव में चल रहे आंदोलन की वजह से उनके राज्य की कई विद्युत् इकाइयों पर संकट मंडरा रहा है.

वो कहते हैं कि जितने कोयले की आवश्यकता है उस हिसाब से कोयला राजस्थान नहीं पहुँच रहा है.

परसा खदान में राजस्‍थान राज्‍य विद्युत उत्‍पादन निगम लिमिटेड के उप मुख्य अभियंता विष्णु प्रसाद गर्ग की देख रेख में खनन का काम चल रहा है.

‘प्रोजेक्ट साईट’ पर बीबीसी से बात करते हुए वो कहते हैं कि राजस्थान में 4340 मेगावाट के 8 विद्युत् उपक्रमों के लिए छत्तीसगढ़ में कोयले के ब्लाक आवंटित किये गए हैं.

जिस हिसाब से इन प्लांटों को चलाने के लिए कोयले की आवश्यकता है उस हिसाब से कोयले की आपूर्ति नहीं हो पा रही है.

इसको लेकर राजस्थान के तमाम मुख्यमंत्रियों ने छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्रियों को लगातार चिट्ठियाँ भी लिखीं हैं.

ज़मीन अधिग्रहण और पुनर्वास

विष्णु प्रसाद गर्ग का दावा है कि ज़मीन अधिग्रहण, मुआवज़ा और पुनर्वास छत्तीसगढ़ की सरकार की ही देख रेख में हो रहा है.

वहीं राजस्‍थान राज्‍य विद्युत उत्‍पादन निगम लिमिटेड के चेयरमैन आरके शर्मा ने रायपुर में पत्रकारों से बातचीत के दौरान कहा कि जब भी कोयले की खदान के लिए ज़मीन ली जाती है और खनन किया जाता है तो फिर उसके बाद ज़मीन को वापस बहाल किया जाता है.

वो कहते हैं, “सुप्रीम कोर्ट ने भी खनन के लिए अनुमति दे दी है. पेड़ काटने का जहां तक सवाल है तो उसके लिए वैधानिक स्वीकृतियां मिलीं हैं. जितने पेड़ काटे जाते हैं उनके बदले फिर पेड़ लगाए भी जाते हैं. उसके लिए बहुत सारे प्रावधान दिए गए हैं.”

“एक पेड़ काटने पर दस पेड़ लगाने पड़ते हैं. 4 लाख पेड़ तो राजस्‍थान राज्‍य विद्युत उत्‍पादन निगम लिमिटेड लगवा चुका है यहाँ पर. और वो सारे के सारे पौधे बड़े पेड़ बन चुके हैं.”

शर्मा का दवा है कि 39 लाख पेड़ राजस्‍थान राज्‍य विद्युत उत्‍पादन निगम लिमिटेड ने छत्तीसगढ़ के वन विभाग के साथ मिलकर उस इलाके में लगाए हैं जहां खदानें शुरू हुईं हैं.

2011 में खनन को हरी झंडी

हसदेव के आदिवासी समाज का आंदोलन वर्ष 2011 में इस परियोजना को हरी झंडी मिलने के बाद से ही शुरू हो गया था. वर्ष 2010 तक इस इलाक़े में खनन को प्रतिबंधित ही रखा गया था.

आंदोलन के दौरान ही हसदेव अरण्य के 30 गांवों के लोगों ने कुछ सामजिक संगठनों के साथ मिलकर ‘हसदेव अरण्य बचाओ संघर्ष समिति’ का गठन किया और खनन के खलाफ़ संघर्ष करना शुरू कर दिया.

समिति का आरोप है कि जब वर्ष 2011 में इस इलाक़े में खनन की अनुमति पहली बार दी गयी थी तो भारत सरकार और पर्यावरण मंत्रालय ने स्पष्ट कर किया था कि इन परियोजनाओं के अलावा यहाँ किसी और खनन परियोजना को मंज़ूरी नहीं दी जायेगी.

संघर्ष कर रहे आदिवासियों का कहना है कि आश्वासन के बाद भी खनन का काम चलता रहा और ‘फर्जी तौर से की गयी ग्राम सभाओं के ज़रिये ज़मीन के अधिग्रहण का काम चलता रहा.’

आंदोलन चल ही रहा था कि 2015 में कांग्रेस के नेता राहुल गांधी भी हसदेव अरण्य आये और उन्होंने आदिवासियों के इस संघर्ष का समर्थन किया था. उस समय राज्य में रमन सिंह की सरकार थी. तब भूपेश बघेल प्रदेश कांग्रेस कमिटी के अध्यक्ष थे.

आंदोलन में शामिल मंगल सिंह पोर्ते कहते हैं कि 2018 के विधानसभा के चुनावों में कांग्रेस की जीत के बाद आदिवासियों को उम्मीद जगी थी कि राहुल गाँधी “अपना वादा निभायेंगे” और नयी सरकार खनन बंद कर देगी.

मगर, वो कहते हैं कि कांग्रेस की सरकार ने ही इस परियोजना के दूसरे चरण की अनुमति दे दी.

क्या कहते हैं आंदोलनकारी

परसा ईस्ट और कांता बसन (पीईकेबी) कोयला खदान परियोजना के लिए ज़मीन का अधिग्रहण हुआ और ग्रामीणों को मुआवज़ा दिया गया और साथ ही में उनको नए आवास भी बनाकर दिए गए.

विष्णु गर्ग का कहना है कि सरकार ने मुआवज़ा भी दिया और परियोजना में विस्थापित लोगों के परिवार के एक सदस्य को नौकरी भी दी गयी. लेकिन हसदेव बचाओ संघर्ष समिति के अलोक शुक्ला इस पूरी प्रक्रिया पर सवाल उठाते हैं.

बीबीसी से बात करते हुए वो कहते हैं, “ये जो पूरी खनन प्रक्रिया है. ये ग्राम सभाओं के विरोध को दरकिनार कर पूरी की गयी है. आदिवासियों के संवैधानिक विरोध को दरकिनार किया जा रहा है. ग्राम सभाओं की विधिवत सहमति इस खनन परियोजना के लिए नहीं ली गयी है. फर्जी ग्राम सभाएं दर्शायी गयीं हैं रिकार्ड में.”

शुक्ल का कहना है कि मौजूदा खनन परियोजना छत्तीसगढ़ विधानसभा के संकल्प की भी अवमानना है. जिसमें इसमें दोनों दलों – कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी के विधायकों ने मिलकर कहा था कि खनन नहीं होना चाहिए.

संपतिया बाई के लिए ये ‘निर्णायक लड़ाई’ है. अपना गाँव बचाने की. हरिहरपुर को बचाने की.

वो बोल पडीं, “उधर परसा-केते बासन खदान की ज़मीन गयी. उसका विरोध हम नहीं कर रहे हैं. उधर का पैसा (मुआवज़ा) कुछ ग्रामीणों को मिला. इधर ज़मीन अधिग्रहण के लिए पैसे देने की बात कर रहे हैं. मगर हमने पैसा नहीं लिया है. न हम ज़मीन देंगे.”

“ये ज़मीन और जंगल हमारे जीने के लिए यह बहुत है.इसलिए हम नहीं देंगे. ये जंगल हमारे साल भर की पैसे की जरूरत पूरा कर देता है. बैंक है ये हमारा जंगल. हम जंगल में जायेंगे तो भूखे नहीं मरेंगे…”

आदिवासियों को भविष्य की चिंता

संपतिया बाई के घर में बेटे और बहु को मिलाकर, कुल 6 सदस्य हैं. अब उन्हें चिंता है कि अगर उनकी ज़मीन का अधिग्रहण हुआ तो वो सबलोग कहा जायेंगे.

वो कहती हैं, “जब खदान खुली थी तो अधिकारी कह रहे थे कि जब बच्चे वयस्क हो जाएंगे तो इन्हें नौकरी दी जाएगी. आज तक नौकरी नहीं दी. हमारे गाँव के कुछ लोग यहाँ पर आप देखेंगे कि अकड़ कर चल रहे हैं. वो इसलिए कि इनको दलाली के लिए पैसे मिल रहे हैं हर महीने दस हजार रूपए.”

संपतिया बाई और उनके जैसे दूसरे ग्रामीण जो धरने पर बैठे हैं अब मुआवज़ा भी नहीं लेना चाहते हैं और अपनी ज़मीन भी नहीं देना चाहते हैं.

उनका कहना है, “हम कहीं नहीं जएंगे. हमारे पुरखे खुटा काटकर यहाँ बसे हैं. हम कहीं नहीं जाएंगे. हम यहीं रहेंगे. पेड़ काटने नहीं देंगे. उससे पहले हम लोगों को काट दें फिर पेड़ों को काटें. हम इस गांव से नहीं जाएंगे. न जंगल काटने देंगे.”

संपतिया के साथ पत्तों से ‘पत्तल और दोना’ बना रहीं संतरा बाई बताती हैं कि जिन लोगों को परियोजना के शुरू होते ही मुआवज़ा मिला और उन्हें दूसरी जगह ले जाया गया, उन लोगों ने अपने पैसे देखते देखते ख़त्म कर दिए. अब वो बुरे हाल में हैं.

संतरा बाई कहतीं हैं, “हम अगर दूसरे गाँव जायेंगे तो पैसे लगायेंगे तभी तो कुछ मिलेगा वहाँ. भला और किस चीज़ से हमें कुछ मिल पायेगा ? और पैसा मिलेगा, तो खा पीकर और गाड़ी घोड़े खरीदने में ख़त्म हो जाएगा. तो दूसरा और क्या ख़रीदने जायेंगे.”

“हम ज़मीन देंगे भी नहीं और अगर हमारे साथ ज़बरदस्ती की जायेगी तो हम भी ज़बरदस्ती करेंगे. यहाँ पर अगर हमें कोई लात मारेगा तो हम भी लात मारेंगे.”

मुनेश्वर पोर्ते मुझे खदान के मुहाने पर ले जाकर इशारे से दिखाते हैं और कहते हैं, “देखिये ये देख रहे हैं ना. वो जो खदान आपको दिख रही है, खदान का ढेर और मिट्टी. वो पहले घना जंगल था. और जंगल सारा कट के ख़त्म हो गया है. जहां पर हम लोग खड़े हैं अभी, और अगर हम लोग विरोध नहीं करेंगे तो मान लीजिये पूरा हसदेव का जंगल है ना, वो ख़त्म हो जाएगा.”

ज़मीन के अधिग्रहण से लेकर पेड़ों की कटाई और मुआवज़े के लिए छत्तीसगढ़ की सरकार ने ही अहम भूमिका निभायी है.

2018 से पहले भारतीय जनता पार्टी की सरकार ने. 2018 के बाद कांग्रेस की सरकार ने. और फिर 2023 के दिसंबर महीने में फिर बनी भारतीय जनता पार्टी की सरकार ने.

कृषि और आदिवासी मामलों के मंत्री राम विचार नेताम के साथ बीबीसी संवाददाता सलमान रावी.

आदिवासी मामलों के मंत्री नेताम का दावा

राज्य के कृषि और आदिवासी मामलों के मंत्री राम विचार नेताम का दावा है कि जिन ग्रामीणों को मुआवज़ा मिला है वो विरोध नहीं कर रहे हैं. वो ये भी दावा करते हैं कि ‘कोई भी स्थानीय ग्रामीण’ इस परियोजना का ‘विरोध नहीं’ कर रहा है.

बीबीसी के साथ रायपुर में हुए एक साक्षात्कार के दौरान जब इस मसले पर पूछा गया तो उन्होंने कहा, “जहां भी इंडस्ट्री लगती है, बड़े प्रोजेक्ट लगते हैं तो स्वाभाविक हैं कुछ लोग बेदखल होते हैं. लोगों को विस्थापन का दंश झेलना ही पड़ता है. ये भी ज़रूरी होता है.”

“अगर कहीं इंडस्ट्री को बढ़ाना चाहते हैं, लोगों को रोज़गार का अवसर देना चाहते हैं तो इन सब को बीच में तो आना ही पड़ेगा. और झेलना ही पड़ता है.”

आंदोलन पर वो कहते हैं कि उन्हें “नहीं लगता” है कि “वहां स्थानीय लोगों का बहुत ज़्यादा विरोध है”. वो दावा करते हैं कि स्थानीय लोगों का “विरोध कम है” और कुछ लोग इसमें जान बूझ “राजनीति” कर रहे हैं.

लेकिन हसदेव अरण्य में कोयले के खनन को अनुमति देने के सरकार के फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती देने वाले वकील सुदीप श्रीवास्तव कहते हैं कि शुरू में इसी अरण्य को एक संरक्षित इलाक़ा घोषित किया गया था जो खनन के लिए ‘नो- गो’ या वर्जित क्षेत्र था.

संसदीय कमेटी ने क्या कहा था?

वर्ष 2011 में संसद में ‘कैबिनेट कमिटी आन इन्फ्रास्ट्रक्चर’ के समक्ष केंद्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्रालय ने अपनी रिपोर्ट पेश की थी जिसमे कहा गया था कि हसदेव अरण्य के इलाके में कोयले के भण्डार हैं.

सुप्रीम कोर्ट में दायर की गयी अपनी याचिका में श्रीवास्तव ने लिखा है कि भारतीय वानिकी अनुसंधान एवं शिक्षा परिषद और ‘वाइल्डलाइफ़ इंस्टीट्यूट ऑफ़ इंडिया’ ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि हसदेव अरण्य में किसी तरह का खनन नहीं होना चाहिए. रिपोर्ट में ये भी कहा गया है कि जितने इलाक़े में ज़मीन खोद दी गयी है उससे ज़्यादा और ज़मीन का अधिग्रहण ना किया जाए.

बीबीसी से बात करते हुए सुदीप श्रीवास्तव कहते हैं, “संसद की कमिटी ऑन इन्फ्रास्ट्रक्चर ने ये भी कहा है कि देश में 3.6 लाख मिलियन टन कोयले के भण्डार मौजूद हैं.”

“अगर कोयले की ज़रूरत भी है तो ये कोयला कहाँ से आयेगा? देश में इस समय 3.6 लाख मिलियन टन कोयले के भण्डार हैं. और इसमें से हसदेव अरण्य के नीचे सिर्फ़ 5500 मिलियन टन मौजूद है. यानी कुल मौजूद भण्डार का 1.6 प्रतिशत से भी कम.”

“वन एवं पर्यावरण मंत्रालय ने जो कैबिनेट कमिटी ऑन इन्फ्रास्ट्रक्चर के सामने वर्ष 2011 में रिपिर्ट पेश की है उसमे कहा गया है कि भारत में जो कुल कोयले के भण्डार हैं उनमे से 15 प्रतिशत से भी कम विभिन्न घने जंगलों के नीचे हैं. बाक़ी का 85 प्रतिशत घने जंगलों के नीचे नहीं है. तो जो बाक़ी का 85 प्रतिशत है, उससे आपकी आने वाली सौ सालों की कोयले की आवश्यकता पूरी हो सकती है.”

‘जंगल विनाश’ का असर

हसदेव अरण्य के जंगलों में हो रहे खनन ने एक नए संघर्ष को भी जन्म दे दिया है. ये संघर्ष अब सुदूर गावों तक पहुँच रहा है.

यहां इंसानों और विशालकाय सरगुजा के जंगली हाथियों के बीच अस्तित्व की लड़ाई शुरू हो गयी है और इसके गंभीर परिणाम भी सामने आ रहे हैं. पिछले कुछ महीनों में ये संघर्ष और सघन हो गया है जिसकी वजह से कई लोगों को अपनी जान भी गंवानी पडी है.

शाम का समय हो चला था और उदयपुर तहसील के बिछल घाटी के इलाक़े में हम ऐसे ही गाँव की तरफ़ जा रहे थे जहां हाथियों के झुण्ड नुकसान कर रहे थे.

हमें ये पता नहीं था कि वहाँ हाथियों का झुंड पहले से मौजूद है. हमारी गाड़ी जैसे ही पहुँची, ये झुंड आक्रामक हो गया.

तब तक वन विभाग का अमला भी पहुँच चुका था. रात ढल गयी थी और पूरे गाँव में लोग ‘हांका’ लगा रहे थे और मशालें जला रहे थे. ग्रामीण पटाखे भी फोड़ रहे थे ताकि ये झुंड गाँव में ना घुस जाए.

यहाँ मौजूद जानकी देवी भी अपने परिवार के साथ सुरक्षित स्थान पर भाग रहीं थीं. बातचीत के दौरान वो बोलीं, “जंगल को उजाड़ दे रहे हैं काट के. इसीलिए तो बस्ती की तरफ़ हाथी आने लगे हैं. वो इधर आ कर आतंक मचाये हुए हैं. घर तोड़ रहे हैं. आदमी को मार रहे हैं . जो मिलता है उसको भी कुचल जाते हैं ये हाथी.”

यहीं के रामलाल बताते हैं कि घाट बर्रा के इलाक़े में जंगली हाथियों ने एक एक ग्रामीण को मार दिया है. उदयपुर में भी. जानवरों को भी मार रहे हैं जो पहले कभी नहीं होता था.

हसदेव अरण्य में ही रामगढ है जहाँ रामगढ़ी की पहाड़ी भी है. ऐसी मान्यता है कि अपने 14 साल के वनवास के दौरान राम लक्ष्मण और सीता ने इस इलाक़े में और ख़ास तौर पर रामगढ़ी की पहाड़ी पर पड़ाव डाला था. ये वो जगह भी है जहां महाकवि कालिदास ने मेघदूत की रचना की थी.

अस्तित्व की लड़ाई

ये इलाक़ा हसदेव अरण्य के बीच ओ बीच है और राम वन गमन पथ का मार्ग कहलाता है. यहाँ आने वाले आस्थावान काफ़ी चिंतित हैं.

हालांकि ये इलाक़ा खनन क्षेत्र में तो नहीं आता है, लेकिन आसपास जो खनन हो रहा है कोयले की खदानों से और जो विस्फोट किये जा रहे हैं, उसकी वजह से रामगढ़ी की पहाड़ी को काफ़ी नुकसान पहुँच रहा है.

क्रांति कुमार रावत उदयपुर के रहने वाले हैं. वो बताते हैं कि रामगढ़ के इलाक़े में हर साल हज़ारों श्रद्धालु राम, लक्ष्मण और सीता के मान चिन्हों को देखने आते हैं.

हर साल यहाँ रामनवमी के अवसर पर विशाल मेला भी लगता है.

वो कहते हैं, “ये हम लोग जिस जगह पर खड़े हैं, इस जगह की मान्यता है कि श्री राम, सीता जी और लक्ष्मण जी अपने वनवास के दौरान यहाँ पर भी रुके थे.”

“यहाँ से जो कुछ दूरी पर खनन हो रहा है, और कोयले को निकालने के लिए जो विस्फोट किये जा रहे हैं, उनकी वजह से यहाँ पर कंपन हो रहा है. पहाड़ में धीरे धीरे कर के दरारें आ रहीं हैं. लगातार इसका क्षरण होता जा रहा है.”

हसदेव अरण्य के जंगलों को बचाने की जद्दोजहद जारी है. इस लंबे संघर्ष के बावजूद संपतिया बाई जैसे आदिवासियों के हौसले कम नहीं हुए हैं.

अब वो इस लडाई को अपने अस्तित्व की लड़ाई मान रहे हैं. उनका कहना है कि अगर वो जीते तो उनका जंगल बच जाएगा. और अगर हारे, तो इलाक़ा खदानों के मलबे के ढेर में तब्दील हो जाएगा.

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